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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वितीयं शतकम्
श्यामानन्द-रस सिन्धु में निमज्जिता श्रीराधा का तथा श्रीराधा के असीम आनन्दरस-समुद्र में मग्न उस श्रीश्यामसुन्दर का और कोटि-प्राण से भी अत्यन्त प्रियतम उन श्रीयुगल-किशोर की क्रीड़ा का दर्शन कर, उन्मत्तकारी आनन्दसागर रस में जिन के देह एवं बुद्धि घूर्णित हो रहे हैं- उन्हीं श्रीराधा-कृष्ण परायण सखियों का मैं ध्यान करती हूँ।।81।।
जो प्रति निमेष में महा अद्भुत मदनोन्माद प्रकाशित कर रहा है, उसी निकुंज मण्डल में स्थित गौर नीलवर्ण ज्यातिर्मय नागर-गुगल का मैं भजन करती हूँ।।82।।
जो कहीं अति सुन्दर छोटे छोटे वृक्ष-लताओं में जल सिंचित कर रहे हैं और कहीं तोता-मैंना को पाठ पढ़ा रहे हैं, कहीं मयूर मयूरी को ताण्डवनृत्य शिक्षा कर रहे हैं तो कहीं नवागत दासी के द्वारा प्रदर्शित सुन्दर सुन्दर कला-विद्या का दर्शन कर रहे हैं, इस प्रकार से दिव्यलीला विनोदी वे श्रीवृन्दानेश्वर श्रीयुगलकिशोर मेरे मन में सर्वदा क्रीड़ा करें।।83।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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