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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वितीयं शतकम्
अहो! किसी समय (प्रबल विरहावस्था में) श्रीमती प्रेमातिशय्य के कारण व्याकुल होकर गद्गद् वाणी से पुलकित एवं अश्रु पूर्ण लोचन युक्त हो अपनी प्रियतमा सखियों को अनुनय विनय करके प्रिय श्यामसुन्दर के पास भेज कर थोड़े समय तक (तीव्र असहिष्णुता के कारण) वेणी से अपने चरणों को बान्धती हैं, मेरी जीवन स्वरूप श्रीराधा श्रीवृन्दावन में सर्वोत्कर्ष युक्त विराजमान हैं।।61।।
नव किशोर-अवस्था प्राप्त, नव नव महा प्रेम के वशीभूत, नव काम-क्षोम से अत्यन्त चञ्चल, नव ललित, दृष्टि में, अंगों में तथा बोलिन में नवीन मधुर भंगी धारण करने वाले, नवीन कुञ्जों में उन गौरश्याम ज्योति श्री युगलकिशोर का स्मरण कर।।62।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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