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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र
अतएव श्री पाद! श्री गुरुदेव के वाक्यों में दृढ़ विश्वासपूर्वक मैं निरन्तर श्रीकृष्ण नाम संकीर्तन करता हूँ एवं वही श्रीकृष्ण नाम ही मुझे कभी नृत्य कराता, कभी गान कराता है। मैं अपनी इच्छा से नहीं नाचता-गाता हूँ।” सरस्वती पाद ने जब अपने प्रश्नों का उत्तर क्रमशः प्रभु की मधुर वाणी से सुना तो उनका चित्त कुछ कुछ आकृष्ट होने लगा। फिर भी अभिमान पूर्वक सोचने लगा- “यह युवक महान् व्यक्ति है, अति मधुर भाषी है, सुबोध है किन्तु हां! यदि कुछ दिन मेरे पास रहे तो एक अपूर्व विभूति बन सकता है। श्रीकृष्ण प्रेम इसे प्राप्त हुआ है- सो तो ठीक है, किन्तु वेदान्त के प्रति इसकी रुचि नहीं है, यह महान् दोष है।” यह विचार कर सरस्वती पाद बोले - “चैतन्य! तुमने जो कहा, सब सत्य है। किसी भाग्यवान को ही प्रेम की प्राप्ति होती है। श्रीकृष्ण नाम-संकीर्तन से हमें सन्तोष है, किन्तु तुम वेदान्त क्यों नहीं पढ़ते-सुनते हो? यह सुनकर श्री महाप्रभु बोले - “श्री पाद! जो आप पूछते हैं यदि मैं उसका उत्तर न दूं तो अपराध होगा और यदि कुछ कहूँ तो आप दुःख मान बैठेंगे? हां! यदि आप दुःख न मानें तो कुछ निवेदन करूँ।” श्री सरस्वती पाद बोले - “ओहो! यह आप क्या कहते हैं? आपकी वचन-माधुरी से, आपकी रूप माधुरी से तो हमारे श्रवण एवं नेत्र अमृतवत् शीतल हो रहे हैं - आप तो साक्षात् नारायण के समान दीखते हैं। आप स्वच्छन्द होकर कहिये - दुःख कैसा?” श्री महाप्रभु बोले - “सरस्वती पाद! वेदान्त-सूत्र ईश्वर के वचन हैं, श्री नारायण ने जिन्हें श्री व्यास रूप से कहा है। भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा एवं करणापाटव - ये सब दोष ईश्वर के वचनों में नहीं होते। उपनिषत् के प्रमाणों से समर्थित जिस तत्त्व को सूत्र कहता है, उसका अर्थ मुख्या-वृत्ति में करने से ही उसके परम महत्त्व एवं स्वयं प्रमाणता की रक्षा होती हैं किन्तु श्री पादशंकराचार्य ने गौणी वृत्ति से ही सूत्रों का भाष्य किया है, उससे वेदान्तसूत्रों की स्वयं-प्रमाणता नहीं रहती एवं उसके श्रवण करने से ब्रह्म-जीव के सेव्य-सेवकत्व भाव की हानि होती है। अतः वह भक्ति-विरोधी भाष्य है। किन्तु श्री पाद! उनका भी दोष नहीं है, उन्होंने भी ईश्वर-इच्छा से ऐसा किया है, यह मैं जानता हूँ- इस प्रकार श्रीमन्महाप्रभु ने उस सभा में कई एक वेदान्तसूत्रों की मुख्या-वृत्ति के अर्थानुकूल आलोचना कर उस भाष्य को दूषित प्रमाणित किया। श्रीकृष्ण-तत्त्व, जीव-तत्त्व, सम्बन्ध-तत्त्व, अभिधेय-तत्त्व एवं पंचम् पुरुषार्थ-प्रेम तत्त्व आदि ज्ञातव्य तत्त्वों का रहस्य प्रभु ने प्रकट किया। इस प्रकार अश्रुतपूर्व व्याख्या प्रभु के मुख से सुनकर समस्त संन्यासी समुदाय चमत्कृत हो उठा। सरस्वती पाद की भी मनोवृत्ति बदल गई। श्री महाप्रभु के चरणों के प्रति प्रबल श्रद्धा-वन्या उमड़ उठी एवं क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष मात्सर्यादि एक साथ बहकर जाने कहाँ जा पड़े, मानो सरस्वती पाद का पुनर्जन्म हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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