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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र
श्री महाप्रभु ने फिर कहा- “मैं श्री गुरुदेव की आज्ञा पाकर अनुक्षण नाम जपने लगा। जपते-जपते मेरा मन उन्मत्त हो उठा। मैं मदोन्मत्त की भाँति कभी रोने, कभी हँसने, कभी नाचने-गाने लगा। मैं चिन्ता करने लगा कि क्या मैं सचमुच पागल हो गया हूँ? अधीर होकर गुरु चरणों में निवेदन किया- हे गुरुदेव! आपने यह कैसा मन्त्र दिया है? इसकी कैसी शक्ति है? जपते-जपते इस मन्त्र ने मुझे पागल कर दिया है। सुनिए, श्री सरस्वती पाद! मेरे गुरुदेव मेरी बात सुनकर हँस पड़े और कहने लगे-
“वत्स! श्रीकृष्ण नाम का स्वभाव है कि जो भी श्रीकृष्ण नाम का संकीर्त्तन करता है, उसके चित्त में श्रीकृष्ण-प्रेम का आविर्भाव होता है। श्रीकृष्ण-विषयक प्रेम ही जीव का परम पुरुषार्थ है, जिसको प्राप्त कर लेने पर धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ भी तृण के समान नितान्त तुच्छ प्रतीय मान होते हैं। श्री गुरुदेव ने यह भी कहा कि “गौरांग! ब्रह्मानन्द जिस प्रेमानन्दामृत-सिन्धु के एक बिन्दु के समान भी नहीं है, वह श्रीकृष्ण नाम का मुख्य फल “प्रेम” तुम्हें प्राप्त हुआ है, अतः आज मैं भी कृतार्थ हो गया हूँ।” ”सरस्वती पाद! श्रीमद्भागवत के सार इस श्लोक को भी श्री गुरुदेव ने सुनाया-
इस प्रकार जो नियम से भक्ति-अंगों का अनुष्ठान करता है, स्वीय प्रिय श्री हरिनाम का संकीर्तन करते-करते उसके हृदय में प्रेम उदय हो आता है एवं वह मानापमान विषय में अवधान-शून्य होकर उन्मत्त व्यक्ति की भाँति उच्च स्वर से कभी हँसने, कभी चीत्कार करने, कभी रोने कभी गाने और कभी नृत्य करने लगता है।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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