- आस्थीयतां जये योगो धर्ममुत्सुज्य।[1]
धर्म को छोड़कर विजय के लिये युक्ति (उपाय) करो।
- जयो वा वधो वापि युद्धमानस्य संयुगे।[2]
रणक्षेत्र में युद्ध करने वाले को कभी जय मिलती है कभी मृत्यु।
- त्वेव कार्यं नैराश्यमस्माभिर्विजयं प्रति।[3]
हमें अपनी विजय के प्रति निराश नहीं होना चाहिये।
- मृतस्य तु हृषीकेश भंग एव कुतो जय:।[4]
हृषीकेश! मरे हुए का तो शरीर ही नहीं रहता है उसकी जय कैसे होगी।
- कथं तेषां जयो न स्याद् येषांधर्मो व्यपाश्रय:।[5]
जो धर्म की शरण में हैं उनकी विजय क्यों न हो?
- धर्मेण निधनं श्रेयो न जय: पापकर्मणा।[6]
पाप कर्म से विजय पाने से अच्छा है धर्मपूर्वक युद्ध करते हुए मर जाना
- जयं जानीत धर्मस्य मूलं सर्वसुखस्य च।[7]
विजय को ही धर्म का और सब सुखों का मूल जानो।
- जघन्य एष विजयो युद्ध नाम।[8]
युद्ध से जो विजय मिलती है उसे नीच माना जाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 190.11
- ↑ कर्णपर्व महाभारत 3.9
- ↑ कर्णपर्व महाभारत 10.14
- ↑ कर्णपर्व महाभारत 64.64
- ↑ शल्यपर्व महाभारत 19.27
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 95.17
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 100.40
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 102.17
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