विजय (महाभारत संदर्भ) 2

  • आस्थीयतां जये योगो धर्ममुत्सुज्य।[1]

धर्म को छोड़कर विजय के लिये युक्ति (उपाय) करो।

  • जयो वा वधो वापि युद्धमानस्य संयुगे।[2]

रणक्षेत्र में युद्ध करने वाले को कभी जय मिलती है कभी मृत्यु।

  • त्वेव कार्यं नैराश्यमस्माभिर्विजयं प्रति।[3]

हमें अपनी विजय के प्रति निराश नहीं होना चाहिये।

  • मृतस्य तु हृषीकेश भंग एव कुतो जय:।[4]

हृषीकेश! मरे हुए का तो शरीर ही नहीं रहता है उसकी जय कैसे होगी।

  • कथं तेषां जयो न स्याद् येषांधर्मो व्यपाश्रय:।[5]

जो धर्म की शरण में हैं उनकी विजय क्यों न हो?

  • धर्मेण निधनं श्रेयो न जय: पापकर्मणा।[6]

पाप कर्म से विजय पाने से अच्छा है धर्मपूर्वक युद्ध करते हुए मर जाना

  • जयं जानीत धर्मस्य मूलं सर्वसुखस्य च।[7]

विजय को ही धर्म का और सब सुखों का मूल जानो।

  • जघन्य एष विजयो युद्ध नाम।[8]

युद्ध से जो विजय मिलती है उसे नीच माना जाता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. द्रोणपर्व महाभारत 190.11
  2. कर्णपर्व महाभारत 3.9
  3. कर्णपर्व महाभारत 10.14
  4. कर्णपर्व महाभारत 64.64
  5. शल्यपर्व महाभारत 19.27
  6. शांतिपर्व महाभारत 95.17
  7. शांतिपर्व महाभारत 100.40
  8. शांतिपर्व महाभारत 102.17

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