वायव्यास्त्र

वायव्यास्त्र नामक एक दिव्यास्त्र का उल्लेख महाभारत में मिलता है। रणभूमि में द्रोणाचार्य के साथ युद्ध करते हुए अर्जुन ने इसका प्रयोग किया था।

'महाभारत भीष्म पर्व' के अनुसार- रणभूमि कुरुक्षेत्र में चल रहे महाभारत युद्ध का हाल बताते हुए संजय कहते हैं- "महाराज! जैसे शरद ऋतु के आकाश में हंस उड़ते दिखायी देते है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य तथा सुशर्मा, इन दोनों के छोड़े हुए बाण आकाश में सुशोभित हो रहे थे। वे बाण सब ओर से कुन्तीकुमार अर्जुन के ऊपर पड़कर उनके शरीर में धँसने लगे, मानो फलों के भार से झुके स्वादिष्ट वृक्ष पर चारों ओर से पक्षी टूटे पड़ते हों। तब रथियों में श्रेष्ठ अर्जुन ने सिंहनाद करके समराडंगण में पुत्रसहित त्रिगर्तराज सुशर्मा को अपने बाणों से घायल कर दिया। जैसे प्रलयकाल में साक्षात् काल सबको मार डालता है, उसी प्रकार अर्जुन की मार खाकर त्रिगर्तदेशीय सैनिक मरने का निश्चय करके पुनः उन्हीं पर टूट पड़े। उन्होंने पाण्डुनन्दन अर्जुन के रथ पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी।

राजेन्द्र ! अर्जुन ने सब ओर से होने वाली उस बाण-वर्षा को उसी प्रकार ग्रहण किया, जैसे पर्वत जल की वर्षा को धारण करता है। उस युद्ध में हमने अर्जुन के हाथों की अद्भुत फुर्ती देखी, जैसे हवा बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार बहुत-से योद्धाओं द्वारा की हुई उस दुःसह बाण-वर्षा का उन्होंने अकेले ही निवारण कर दिया। महाराज ! अर्जुन के उस पराक्रम से देवता और दानव सभी संतुष्ट हुए। भारत ! तदनन्तर क्रोध में भरे हुए अर्जुन ने युद्ध के मुहाने पर त्रिगर्त-सेनाओं को लक्ष्य करके वायव्यास्त्र का प्रयोग किया; फिर तो आकाश को विक्षुब्ध कर देने वाली वायु प्रकट हुई, जो वृक्षों को गिराने और सैनिकों को नष्ट करने लगी। महाराज ! तदनन्तर द्रोणाचार्य ने अत्यन्त भयंकर वायव्यास्त्र को देखकर उसका निवारण करने के लिये भयानक पर्वतास्त्र का प्रयोग किया।"[1]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 102 श्लोक 1-20

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