वह छबि अंग निहारत स्याम।
कबहुँक चुंबन लेत उरज धरि, अति सकुचति तनु बाम।।
सनमुख नैन न जोरत प्यारी, निलज भए पिय ऐसे।
हा हा करति चरन कर टेकति, कहा करत ढंग नैसे।।
बहुरि काम रस भरे परस्पर, रति विपरीत बढाई।
'सूर' स्याम रतिपति बिह्वल करि, नारि रही मुरझाई।।2625।।