लोचन चातक ज्यौ है चाहत ।
अवधि गऐ पावस की आसा, क्रम क्रम करि निरबाहत ।।
सरिता सिंधु अनेक और सखि, सुत पति सजन सनेह ।
ये सब जल जदुनाथ जलद बिनु, अधिक दहत हैं देह ।।
जब लगि नहिं बरषत ब्रज ऊपर, नव घन स्याम सरीर ।
तौ लगि तृषा जाइ किन ‘सूरज’ आन ओस कै नीर ।। 3245 ।।