लोचन आइ कहा ह्याँ पावै।
कुंडल झलक कपोलनि रीझे, स्याम पठाए हूँ नहिं आवै।।
जिनि पायौ अमृत घट पूरन, छिनु घात अघात।
ते तुम सो फिरि कै रचि मानै, कहति अचंभौ बात।।
रस लपट वे भए रहत है, बज्र घर घर यह बानी।
हमहूँ को अपराध लगावहिं येऊ भई दिवानी।।
लूटहिं ये इंद्री मन मिलि कै, त्रिभुवन नाम हमारौ।
'सूर' कहाँ हरि रहत, कहाँ हम, यह काहै न बिचारौ।।2261।।