लीन्हौं जननि कंठ लगाइ।
अंग पुलकित, रोम गदगद सुखद आँसु बहाइ ।
मैं तुमहिं बरजति रही हरि, जमुन-तट जनि जाइ।
कह्यौ मेरौ कान्ह कियौ नहिं, गयौ खेलन धाइ।
कंस कमल मँगाइ पठए, तातैं गयउँ डराइ।
मैं कह्यौ निसि सुपन तोसौं, प्रगट भयौ सु आइ।
ग्वाल सँग मिलि गेंद खेलत, आयौ जमुना-तीर।
काहु लै मोहिं डारि दीन्हौ, कालिया-दह-नीर।
यह कही तब उरग मोसौं किन पठायौ तोहिं ।
मैं कही, नृप कंस पठयौ कमल-कारन मोहिं।
यह सुनत डरि कमल दीन्हौ, लियौ पीठि चढ़ाइ।
सूर यह कहि जननि बोधी, देख्यौ तुमहीं आइ।।580।।