ललिता कौ सुख दै चले, अपनै निज धाम।
बीच मिली चंद्रावलि, उन देखे स्याम।।
मोर मुकुट कछनी कछे, नटवर गोपाल।
रही बदन तनु हेरि कै, अति हित ब्रजबाल।।
गली साँकरी, कोउ नही, आतुर मिली धाइ।
कहाँ कहाँ पिय रहत हौ, हमकौ बिसराइ।।
स्याम कह्यौ हँसि बाम सौ, तुम्हरै निसि बास।
'सूर' हृदय की कल्पना सुनि, भई हुलास।।2492।।