रे सुत बिनु गोबिंद कोउ नाही ।
तुम्हरो दुःख दूरि करिबे कौ, रिद्धि सिद्धि निधि फिरि फिरि जाही ।।
और देव की सेवा ऐसी, तृन की अग्नि मेघ की छाही ।
जगत पिता जगदीस सरन बिनु, अंत अनाथ कहूँ न समाहीं ।।
सिव बिरचि सुर ईस मनुज मुनि, तिनकी भक्ति भजत अवगाही ।
'सूरदास' भगवत भजन बिनु, कोटि करौ तउ दुख न जाही ।। 4212 ।।