रे सुत बिनु गोबिंद कोउ नाही -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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रे सुत बिनु गोबिंद कोउ नाही ।
तुम्हरो दुःख दूरि करिबे कौ, रिद्धि सिद्धि निधि फिरि फिरि जाही ।।
और देव की सेवा ऐसी, तृन की अग्नि मेघ की छाही ।
जगत पिता जगदीस सरन बिनु, अंत अनाथ कहूँ न समाहीं ।।
सिव बिरचि सुर ईस मनुज मुनि, तिनकी भक्ति भजत अवगाही ।
'सूरदास' भगवत भजन बिनु, कोटि करौ तउ दुख न जाही ।। 4212 ।।

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