रे मन, जग पर जानि उगायौ।
घन-मद कुल-मद तरुनि कै मद, नव-मद हरि बिसरायौ।
कलि-मल-हरन, कालिमा-टारन, रसना श्याम न गायौ।
रसमय जानि सुवा सेमर कों चोंच घालि पछितायो।
कर्म-धर्म, लील-जस हरि-गुन, इहि रस छाँव न आयौ।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु, कहु कैसे सुख पायो। ॥ 58 ॥