रे कपि, क्यौं पितु-वेर बिसारयौ -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग मारू


 
रे कपि, क्यौं पितु-वेर बिसारयौ?
तो समतुल कन्या किन उपजी, जो कुल-सत्रु न मारयौ!
ऐसौ सुभट नहीं महिमंडल देख्यौ बालि-समान।
तासौं कियौ बैर मैं हारयौ, कीन्हीं पैज प्रमान।
ताकौ बध कीन्हौ इहिं रघुपति तुव देखत विदमान।
ताकी सरन रहयौ क्यौं भावै, सब्द न सुनियै कान।
रे दसकंध अंध-मति, मूरख, क्यौं भूल्यौ इहिं रूप?
सूझत नहीं बीसहू लोचन, परयौ तिमिर कैं कूप।
धन्य पिता, जापर परफुल्लित राघव-भुजा अनूप।
वा प्रताप की मधुर बिलोकनि पर वारौं सब भूप।
जौ तोहिं नाहिं बाहु-बल-पौरुष, अर्घ राज देउँ लंक।
मो समेत ये सकल निसाचर, लरत न मानैं संक।
जब रथ साजि चढ़ौं रन सन्मुख, जीय न आनौं तंक।
राघव सेन समेत सँहारौं, करौं रुघिरमय पंक।
श्रीरघुनाथ-चरन-व्रत उर धरि, क्यौं नहिं लागत पाइ?
सवके ईस, परम करूनामय, सवही कौं सुखदाइ।
हौं जु कहत, लै चलौ जानकी, छाँड़ौ सवै ढिठान।
सनमुख होइ सूर के स्वामी, भक्तनि कृपा-निधान॥134॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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