रीती मटुकी सीस लै, चलों घोष-कुमारी।
एक एक की सुधि नहीं को कैसी नारी।।
बनहीं मैं बेंचति फिरैं, घर की सुधि डारी।
लोक-लाज, कुल-कानि की, मरजादा हारी।।
लेहु-लेहु दघि कहति हैं, बन मोर पसारी।
द्रुम सब घर करि जानहीं, तिनकौं दै गारी।।
दूध दह्यौ नहिं लेहु री, कहि कहि पचिहारी।
कहत सूर घर कोउ नहीं, कहँ गई दइ मारी।।1621।।