राधिकासंग मिलि गोपनारी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मारू


राधिका संग मिलि गोपनारी।
चलीं हिलि मिलि सबै, रहसि बिहँसती तरुनि, परसपर कौतूहल करत भारी।।
मध्य ब्रजनारी, रूप-रस-आगरी, घोषउज्जागरी, स्यामप्यारी।
बदन दुति इंदु री, दसन-छवि-कृंद री, काम-तनु-दुंद री करन हारी।।
अंग अंग सुभग अति, चलति गजराजगति, कृष्न सौ एक मति जमुन जाही।
कोउ निकसि जाति, कोउ ठठकि ठाढ़ी रहति, कोउ कहति संग मिलि चलहु नाही।।
जुवति आनंद भरी, भई जुरिकै खरी, नई छरहरी सुठि बैस थोरी।
‘सूर’ प्रभु सुनि स्रवन, तहाँ कीन्हों गवन, तरुनि मन रवन सब ब्रजकिसोरी।।1751।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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