राधा निरखि भूली अंग।
नंद-नंदन-रूप पर, गति मति भई तनु पंग।।
इत सकुच अति सखिनि की, उत होति अपनी हानि।
ज्ञान करि अनुमान कीन्हौ, अबहि लैहै जानि।।
चतुर सखियनि परखि लीन्ही, समुझि भई गँवारि।
सबै मिलि इत न्हान लागी, ताहि दियौ बिसारि।।
नागरी मुख स्याम निरखति, कबहु सखियनि हेरि।
‘सूर’ राधा लखति नाही इन दई अवढ़ेरि।।1759।।