(सेज सौं उठि बृंदाबन में पधारनौ) (पटापेक्ष)
कामदेव- अहा! मैंने ब्रह्मा कूँ जीत्यौ, महादेवजी कूँ जीत्यौ, चंद्रमा कूँ जीत्यौ, इंद्र कूँ जीत्यौ, और हू सब देवतान कूँ जीत्यौ, परंतु एक विष्णु रहे हैं- काहू समय उनकूँ हूँ जीति लऊँगौ।
(नारदजी कौ आनौ)
नारदजी (स्वगत) है? सामने सौं कामदेव आय रह्यौ है, ये मोते लरिवे की कहूँगौ, सो मोमें तो लरिवे की सामर्थ्य है नहीं, यासौं दृष्टि बचाय कै निकरि चलूँ।
(श्लोक)
- खलानां कण्टकानां च द्विविधैव प्रतिक्रिया।
- उपानन्मुखभंगो वा दूरतो वा विसर्जनम्।
अर्थ- खल और काँटे कौ तौ यही उपाय है कि अपने में सामर्थ्य होय तौ वाको मुख भंजन कर दे, नहीं तौ वासौं दृष्टि बचाय कैं निकसि जाय।
कामदेव- क्यौं नारदजी! न राम-राम न स्याम-स्याम, वैसैं ही बचि कैं चले जाय रहे हौ? देखौ, मेरी भुजान में खुजार चलि रही है। सो यातै आप लरौ और नहीं लरि सकौ तौ कोई लरिबे वारौ बताऔ।
नारदजी- अहा हा, मदनराज! मोमें तौ इतनी सामर्थ्य नहीं सो युद्ध करूँ परंतु आपकी भुजान की खुजार मिटायबे को उपाय अवस्य बताय सकूँ हूँ देखौ, बृंदाबन में श्रीकृष्णचंद्र विराजै हैं, सो वे आपकी इच्छा कूँ अवस्य पूर्ण करैंगे। (नारदजी कौ पधारनौ, कामदेव कौ ठाकुरजी के पास जानौ तथा दंडवत करनी)