- शारणिकान् राजा पुत्रवत् परिरक्षति।[1]
राजा शरणागतों की पुत्र की ही भाँति रक्षा करता है।
- धर्मेण विजयं कोशं लिप्सेत भूमिप:।[2]
राजा धर्म के द्वारा ही विजय और कोश प्राप्त करने की कामना करे।
- यत्र नास्ति बलात्कार: स राजा तीव्रशासन:।[3]
जिसके राज्य में बलत्कार ना हो वही उग्र शासन वाला राजा अच्छा है।
- न रक्षति प्रजा: सम्यग् य: स पार्थिवतस्कर:।[4]
जो राजा प्रजा की रक्षा नहीं करता वह राजा नहीं चोर है।
- राजानो भुञ्जते राज्यं प्रज्ञया तुल्यलक्षणा:।[5]
समान लक्षणों वालों में जो अधिक ज्ञानी है वही राज्य का भोग करता है।
- सुकृतेनैव राजानो भूयिष्ठं शासते प्रजा:।[6]
शुभकार्मों के बल पर ही राजा लोग अधिक समय तक राज्य करते हैं।
- न राजानं मृषा गच्छेत्।[7]
राजा के पास कपट से न जायें।
- नास्त्यसाधारणो राजा।[8]
प्रजा के बिना कोई राजा नहीं होता
- प्रहरेन्न नरेंद्रेषु।[9]
राजाओं पर प्रहार न करें।
- धिक् तस्य जीवितं राज्ञो राष्ट्रे यस्यावसीदति।[10]
उस राजा को धिक्कार है जिसके राज्य में कोई कष्ट पाता है।
- राजा हि धर्मकुशल: प्रथमं भूतिलक्षणम्।[11]
राजा धर्म में कुशल हो यह प्रजा के ऐश्वर्य का पहला लक्षण है।
- बूयिष्ठं च नरेंद्राणां विद्यते न शुभा गति:।[12]
अधिकतर राजाओं की अच्छी गति नहीं होती।
- पूजार्हा हि नराधिपा:।[13]
राजा पूजा के योग्य होते हैं।
- राजा गुरु: प्राणभृताम्।[14]
राजा सभी प्राणियों का गुरु होता है।
- अवश्यं नरकस्तात द्रष्टव्य: सर्वराजभि:।[15]
सभी राजाओं को अवश्य ही नरक देखना पड़ता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 91.36
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 95.22
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 139.97
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 139.100
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 237.9
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 267.25
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 320.72
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 320.161
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 22.30
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 61.29
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 62.40
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 84.2
- ↑ आश्वमेधिकपर्व महाभारत 86.2
- ↑ आश्रमवासिकपर्व महाभारत 3.36
- ↑ स्वर्गारोहणपर्व महाभारत 3.12
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