राजा (महाभारत संदर्भ) 3

  • न तु राजाभिपन्नस्य शेषं क्वचन विद्यते।[1]

जो राजा की पकड़ में आ गया उसका कुछ भी शेष नहीं बचता।

  • राज्ञा हि पूजितो धर्मस्तत: सर्वत्र पूज्यते।[2]

राजा जिस धर्म का आदर करता है उसका सर्वत्र आदर होने लगता है।

  • यद् यदाचरते राजा तत् प्रजानां स्म रोचते।[3]

राजा जो कर्म करता है वही कर्म करना प्रजा को अच्छा लगता है।

  • कोऽर्थो राज्ञाप्यररक्षता।[4]

जो रक्षा न कर सके ऐसे राजा से क्या लाभ?

  • धर्माधर्मेण राजानश्चरंति विजीगीषव:।[5]

विजय के इच्छुक राजा कभी धर्म तो कभी अधर्म का आश्रय लेते है।

  • य: कश्चिज्जनयेदर्थं राज्ञा रक्ष्य: सदा नर:।[6]

जो कोई धन को बढ़ाता हो, राजा को उसकी रक्षा करनी चाहिये।

  • देवतेव सर्वार्थान् कुर्याद् राजा प्रसादित:।[7]

राजा को प्रसन्न कर लिया जाये तो देवता की भाँति कार्य पूर्ण करता है।

  • अविश्वासो नरेंद्राणां गुह्मं परमुच्यते।[8]

किसी पर भी पूरा विश्वास न करना राजाओं का परम गुप्त मंत्र है।

  • मधुदोहं दुहेद् राष्ट्रं भ्रमरा इव पादपम्।[9]

राष्ट्र को पीड़ा न हो इतना ही कर लो जैसे फूल से मधुमक्खी लेती है।

  • धर्माय राजा भवति न कामकरणाय तु।[10]

धर्म का पालन हो इसलिये राजा होता है, विषयों के भोग के लिये नहीं।

  • धर्मे तिष्ठति भूतानि धर्मो राजनि तिष्ठति।[11]

प्राणी धर्म के आधार स्थित पर रहते हैं और धर्म राजा के आधार पर।

  • यदा राजा शास्ति नरानशिष्टांस्तदा राज्यं वर्धते।[12]

जो राजा दुष्टों को दण्ड देता है उसका राज्य समुद्ध होता चला जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शांतिपर्व महाभारत 68.50
  2. शांतिपर्व महाभारत 75.4
  3. शांतिपर्व महाभारत 75.4
  4. शांतिपर्व महाभारत 78.41
  5. शांतिपर्व महाभारत 80.5
  6. शांतिपर्व महाभारत 82.1
  7. शांतिपर्व महाभारत 82.31
  8. शांतिपर्व महाभारत 85.34
  9. शांतिपर्व महाभारत 88.4
  10. शांतिपर्व महाभारत 90.3
  11. शांतिपर्व महाभारत 90.5
  12. शांतिपर्व महाभारत 91.28

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