राजा इक पंडित पौरि तुम्हारी -सूरदास

सूरसागर

अष्टम स्कन्ध

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राग मलार



राजा इक पंडित पौरि तुम्हारी ।
चारौ वेद पढ़त मुख आगर, ह्वै वावन-बपु-धारी।
अपद-दुपद-पशु-भाषा बूझत, अविगत अल्प-अहारी।
नगर सकल नर -नारी मोहे, सूरज जोति बिसारी।
सुनि सानंद चल बलि राजा, आहुति जज्ञ बिसारी।
देखि सुरूप सकल कृष्नाकृति, कीनी चरन-जुहारी।
चलिचै बिप्र जहाँ जग- वेदी, बहुत करी मनुहारी।
जो माँगौ सो देहुँ तुरतहीं, हीरा-रतन-भँडारी।
रहु-रहु राजा, यौ नहि कहियै, दूषन लगै भारी।
तीन पैग बसुधा दै मौकौ, तहाँ रचै ध्रमसारी।
सुक्र कह्यौ , सुनि हो बलि राजा, भूमि कौ दान निवारी।
ये तो विप्र होहि नहि राजा, आए छलन मुरारी।
कहि धौं सुक्र, कहा अब कीजै, आपुन भए भिखारी।
जब हीं उदक दियौ बलि राजा, वावन देह पसारी।
जै-जै-कार भयौ भुव मापत, तोनि पैड़ भइ सारी।
आध पैड़ बसुधा दे राजा नातरु चलि सत हारी।
अब सत क्यौं हारौं जग-स्वामी मापौ देह हमारी।
सूरदास बलि सरवस दीन्हौ, पायौ राज पतारी।।14।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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