राजत जुगल किसोर किसोरी।
प्रात समय देखियत ग्रीवाभुज स्याम सिथिल आलस गति गोरी।।
रहे उघटि बलहीन बिलासनि बरनौ कहा मदन रँग बोरी।
मनौ अंग अँग सुख फलकैं हित दुति बसतमारुत झकझोरी।।
ससि मुख सखी स्यामलोचन छवि प्रगटत मिलत उभय पट कौ री।
मनु रवि देखि तरषि कछु सकुचत निरखत जुवति लेति चित चोरी।।
थकित सुभग दृग अरुन उनीदै कुरुष कटाच्छ करति मुरि थोरी।
खंजन मृग अकुलात घात डर स्याम व्याध बाँधे रति डोरी।।
नील अलक ताटक अक दै स्याम गड उपटित बर छोरी।
मनहुँ सेस मधुसर कूरम रजु काढत उभय रूप धरि तोरी।।
कोमल कठिन कपोल अमल अति तहँ उपटित क्रीडा-रद-रोरी।
मदन कोष पर सैलसँचारी छाप ताप मोचन मधु घोरी।।
नैन बैन कर चरन चिकुर चल सिथिल उमय स्रव स्वेद निचोरी।
मनु सेना संग्राम मध्य तै प्रीति दै जाइ बहोरी।।
थाके रँगरन की छवि छाजत हार मानि नहिं रहत निहोरी।
‘सूर’ सुभट दोउ खेत न छाँड़त मनहुँ आइ ठाढ़े दल जोरी।। 57 ।।