राघौ जू, कितिक बात, तजि चिंत।
केतिक रावन-कुंभकरन-दल सुनियै देव अनंत।
कहौ तौ लंक लकुट ज्यों फेरौं, फेरि कहूँ लै डारौं।
कहौ तौ परबत चाँपि चरन तर, नीर-खार मैं गारौं।
कहौ तौ असुर लंगूर लपेटौं, कहौ तौ नखिन विदारौं।
कहौ तौ सैल उपारि पेड़ि तै, दै सुमेरु सौं मारौं।
जेतिक सैल-सुमेरु धरनि मैं, भुज भरि आनि मिलाऊँ।
सप्त समुद्र देउँ छाती तर, एतिक देह बढ़ाऊँ।
चली जाउ सैना सब मोपर, घरौ चरन रघुबीर।
मोहि असीस जगत-जननी की, नवत ज बज्र-सरीर ।
जितिक बोल बोल्यौ- तुम आगैं, राम प्रताप तुम्हारैं।
सूरदास प्रभु की सौं साँचे, जन करि पैज्ञ पुकारै॥107॥