रहि रहि देख्यौ तेरौ ज्ञान।
सुफलकसुत सरबस्व लै गयौ, तू करत अब न्यान।।
वृथा कत अपलोक लावत, कहत यह संदेस।
डरपि कातर होहु जनि कहुँ, कहत बैन बलेस।।
जोग मत अति बिसद कीरति, होहि बाछित काम।
सदा तनमयता भरे है, वे पुरुष तुम धाम।।
चरन कंज सुबास लै लै, जियति ऐसौ रीति।
कहत तिनसा धूम घूटन, नाहि चालन प्रीति।।
अजहुँ नाहिन कहि सिरानौ, यह कथा को छेउ।
‘सूर’ धोखा तनक हो हम, देखि लीन्हौ तेउ।।3691।।