पीर न जानौ हो निरमोही2 -सूरदास

सूरसागर

1.परिशिष्ट

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रस को मिले चोप अपनी सो, यातै खेद करेइ।
ऐसै तूल गोपि सुक ज्यौं, पुनि भूलै सेमर सेइ।।
जैसै ब्याल छाँड़ि अपनौ बपु, फिरि न बिलोकै सोइ।
टूटी कै फूटी कै बिनसी, सदा जात पै खोइ।।
सो गति स्याम हमारी कीन्ही, दिन दस लाड़ लड़ाए।
बारक आनि दिखाई दीन्ही, गारी मूड़ चढ़ाए।।
प्रीति की रीति परेवा जानै, सत लै उडै आकासा।
पख पसारि दसहुँ दिसि धावै, ऊरध लेत उसाका।।
गिरत न करत सँभार देह को, प्रान परेई पासा।
‘सूर’ सुरति लागी जु प्रीति बस, सब तै भयौ निरासा।।
नैसुक धरे मुरलिया कर मैं, मोहै सबके प्रान।
तऊ न भए आपने सजनी, कपटी कान्ह निदान।। 151 ।।

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