रवितनया को सलिल गँभीर, आवहु रे मिलि न्हाइयै।
इहँ अति स्रमहिं गँवाइ देह को, पुनि अपनैं घर जाइयै।।
भीजे गात जातही नूतन, तब जसुदा पै जाइयै।
लै सबही कौ स्वाद मनोहर, मीठौ होइ सो खाइयै।।
ये भूषन ये बसन मनोहर, सादर ‘सूर’ दिखाइयै।
जानत हो हरि बेगि बिदा ब्रज, बिमुखनि जाइ चिताइयै।। 134 ।।