यह कहि प्यारी भवन गई -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

Prev.png
राग देव गंधार


यह कहि प्यारी भवन गई।
रीझे स्याम देखि वा छबि पर, रिस मुख सुदरई।।
द्वार कपाट दियौ गाढे करि, कर आपनै बनाइ।
नैकु नहीं कहुँ सधि बचाई, पौढि रही तब जाइ।।
इहि अंतर, हरि अंतरजामी, जो कछु करै सु होइ।
जहाँ नारि मुख मूँदि पौढ़ि रही, तहाँ संग रहे सोइ।।
जो देखै ह्याँ संग बिराजत, चली तिया झहराइ।
एक स्याम आँगनही देखे, इक गृह रहे समाइ।।
उत कौ वै अति बिनय करत है, इत अंकम भरि लीन्ही।
'सूर' स्याम मनहरनि कला बहु, मन हरि कै बस कीन्ही।।2526।।

Next.png

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः