विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दअष्टम अध्यायशरीर का निधन शुद्ध अन्तकाल नहीं है। मरने के बाद भञी शरीरों का क्रम पीछे लगा रहता है। संचित संस्कारों की सतह के मिट जाने के साथ ही मन का निरोध हो जाता है। और वह मन भी जब विलीन हो जाता है तो वहीं पर अन्तकाल है, जिसके बाद शरीर धारण नहीं करना पड़ता। यह क्रियात्म्क है। केवल कहने से, वार्ताक्रम से समझ में नहीं आता। जब तक वस्त्रों की तरह का शरीर का परिवर्तन हो रहा है, तब तक शरीरों का अन्त कहाँ हुआ? मन के निरोध और निरुद्ध मन के भी विलयकाल में जीते-जी शरीर के सम्बन्धों का विच्छेद हो जाता है। यदि मरने के बाद ही यह स्थिति मिलती तो श्रीकृष्ण भी पूर्ण न होते। उन्होंने कहा कि अनेक जन्मों के अभ्यास से प्राप्तिवाला ज्ञानी साक्षात् मेरा स्वरूप है। मैं वह हूँ और वह मुझमें है। लेशमात्र भी उसमें और मुझमें अन्तर नहीं है। यह जीते-जी प्राप्ति है। जब फिर कभी शरीर न मिले, वही शरीरों का अन्त होता है। यह तो वास्तविक शरीरान्त का चित्रण हुआ, जिसके पश्चात् जन्म नहीं लेना पड़ता है। दूसरा शरीरान्त मृत्यु है, जो लोक-प्रचलित है, किन्तु इस शरीरान्त के पश्चात् पुनः जन्म लेना पड़ता है-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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