यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 385

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

अष्टम अध्याय

शरीर का निधन शुद्ध अन्तकाल नहीं है। मरने के बाद भञी शरीरों का क्रम पीछे लगा रहता है। संचित संस्कारों की सतह के मिट जाने के साथ ही मन का निरोध हो जाता है। और वह मन भी जब विलीन हो जाता है तो वहीं पर अन्तकाल है, जिसके बाद शरीर धारण नहीं करना पड़ता। यह क्रियात्म्क है। केवल कहने से, वार्ताक्रम से समझ में नहीं आता। जब तक वस्त्रों की तरह का शरीर का परिवर्तन हो रहा है, तब तक शरीरों का अन्त कहाँ हुआ? मन के निरोध और निरुद्ध मन के भी विलयकाल में जीते-जी शरीर के सम्बन्धों का विच्छेद हो जाता है। यदि मरने के बाद ही यह स्थिति मिलती तो श्रीकृष्ण भी पूर्ण न होते। उन्होंने कहा कि अनेक जन्मों के अभ्यास से प्राप्तिवाला ज्ञानी साक्षात् मेरा स्वरूप है। मैं वह हूँ और वह मुझमें है। लेशमात्र भी उसमें और मुझमें अन्तर नहीं है। यह जीते-जी प्राप्ति है। जब फिर कभी शरीर न मिले, वही शरीरों का अन्त होता है।

यह तो वास्तविक शरीरान्त का चित्रण हुआ, जिसके पश्चात् जन्म नहीं लेना पड़ता है। दूसरा शरीरान्त मृत्यु है, जो लोक-प्रचलित है, किन्तु इस शरीरान्त के पश्चात् पुनः जन्म लेना पड़ता है-


Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः