यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 383

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

अष्टम अध्याय

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।4।।

जब तक अक्षय भाव नहीं मिलता, तब तक नष्ट होनेवाले सम्पूर्ण क्षर भाव अधिभूत अर्थात् भूतों के अधिष्ठान हैं। वहीं भूतों की उत्पत्ति के कारण हैं। ‘पुरुषः च अधिदैवतम्’-प्रकृति से परे जो परम पुरुष है, वही अधिदैव अर्थात् सम्पूर्ण देवों (दैवी सम्पद्) का अधिष्ठाता है। दैवी सम्पद् उसी परमदेव में विलीन हो जाती है। देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! इस मनुष्य-तन में मैं ही ‘अधियज्ञ’ हूँ अर्थात् यज्ञों का अधिष्ठाता हूँ। अतः इसी शरीर में, अव्यक्त स्वरूप में स्थित महापुरुष ही अधियज्ञ है। श्रीकृष्ण एक योगी थे। जो सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता है, अन्त में यज्ञ उसमें प्रवेश पा जाते हैं। वही परमस्वरूप मिल जाता है। इस प्रकार अर्जुन के छः प्रश्नों का समाधान हुआ। अब अन्तिम प्रश्न कि अन्तकाल में कैसे आप जानने में आते हैं, जो कभी विस्मृत नहीं होते?

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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