विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दअष्टम अध्यायअधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्। जब तक अक्षय भाव नहीं मिलता, तब तक नष्ट होनेवाले सम्पूर्ण क्षर भाव अधिभूत अर्थात् भूतों के अधिष्ठान हैं। वहीं भूतों की उत्पत्ति के कारण हैं। ‘पुरुषः च अधिदैवतम्’-प्रकृति से परे जो परम पुरुष है, वही अधिदैव अर्थात् सम्पूर्ण देवों (दैवी सम्पद्) का अधिष्ठाता है। दैवी सम्पद् उसी परमदेव में विलीन हो जाती है। देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! इस मनुष्य-तन में मैं ही ‘अधियज्ञ’ हूँ अर्थात् यज्ञों का अधिष्ठाता हूँ। अतः इसी शरीर में, अव्यक्त स्वरूप में स्थित महापुरुष ही अधियज्ञ है। श्रीकृष्ण एक योगी थे। जो सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता है, अन्त में यज्ञ उसमें प्रवेश पा जाते हैं। वही परमस्वरूप मिल जाता है। इस प्रकार अर्जुन के छः प्रश्नों का समाधान हुआ। अब अन्तिम प्रश्न कि अन्तकाल में कैसे आप जानने में आते हैं, जो कभी विस्मृत नहीं होते? |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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