विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दसप्तम अध्यायनिष्कर्ष- इन सातवें अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया कि-अनन्य भाव से मुझमें समर्पित होकर, मेरे आश्रित होकर जो योग में लगता है वह समग्र रूप से मुझे जानता है। मुझे जानने के लिये हजारों में कोई विरला ही प्रयत्न करता है और प्रयत्न करनेवालों में विरला ही कोई जानता है। वह मुझे पिण्डरूप में एकदेशीय नहीं वरन् सर्वत्र व्याप्त देखता है। आठ भेदोंवाली मेरी जड़ प्रकृति है और इसके अन्तराल में जीवरूप मेरी चेतन प्रकृति है। इन्हीं दोनों के संयोग से पूरा जगत् खड़ा है। तेज और बल मेरे ही द्वारा हैं। राग और काम से रहित बल तथा धर्मानुकूल कामना भी मैं ही हूँ। जैसा कि सब कामनाएँ तो वर्जित हैं, लेकिन मेरी प्राप्ति के लिये कामना कर। ऐसी इच्छा का अभ्युदय होना मेरा ही प्रसाद है। केवल परमात्मा को पाने की कामना ही ‘धर्मानुकूल कामना’ है। श्रीकृष्ण ने बताया कि-मैं तीनों गुणों से अतीत हूँ। परम का स्पर्श करके परमभाव में स्थित हूँ; किन्तु भोगासक्त मूढ़ पुरुष सीधे मुझे न भजकर अन्य देवताओं की उपासना करते हैं, जबकि वहाँ देवता नाम का कोई है ही नहीं। पत्थर, पानी, पेड़ जिसको भी वे पूजना चाहते हैं, उसी में उनकी श्रद्धा को मैं ही पुष्ट करता हूँ। उसकी आड़ में खड़ा होकर मैं ही फल देता हूँ; क्योंकि न वहाँ कोई देवता है, न किसी देवता के पास कोई भोग ही है। लोग मुझे साधरण व्यक्ति समझकर नहीं भजते; क्योंकि मैं योग-प्रक्रिया द्वारा ढँका हुआ हूँ। अनुष्ठान करते-करते योगमाया का आवरण पार करनेवाले ही मुझ शरीरधारी को भी अव्यक्त रूप में जानते हैं, अन्य स्थितियों में नहीं।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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