यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 377

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

सप्तम अध्याय

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः।।30।।


जो पुरुष अधिभूत, अधिदैव तथा अधियज्ञ के सहित मुझे जानते हैं, मुझमें समाहित चित्तवाले वे पुरुष अन्तकाल में भी मुझको ही जानते हैं, मुझमें ही स्थित रहते हैं और सदैव मुझे प्राप्त करते हैं। छब्बीसवें-सत्ताइसवें श्लोक में उन्होंने कहा-मुझे कोई नहंी जानता; क्योंकि वे मोहग्रस्त हैं। किन्तु जो उस मोह से छूटने के लिये प्रयत्नशील हैं, वे (1) सम्पूर्ण ब्रह्म, (2) सम्पूर्ण (3) सम्पूर्ण कर्म, (4) सम्पूर्ण अधिभूत (5) सम्पूर्ण अधिदैव और (6) सम्पूर्ण अधियज्ञ सहित मुझको जानते हैं अर्थात् इन सबका परिणाम मैं (सद्गुरु) हूँ। वही मुझे जानता है, ऐसा नहीं कि कोई नहीं जानता।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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