विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दसप्तम अध्यायनाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः। सामान्य मनुष्य के लिये माया एक परदा है, जिसके द्वारा परमात्मा सर्वथा छिपा है। योग-साधना समझकर वह इसमें प्रवृत्त होता है। इसके पश्चात् योगमाया अर्थात् योगक्रिया भी एक आवरण ही है। योग का अनुष्ठान करते-करते पराकाष्ठा योगारूढ़ता आ जाने पर वह छिपा हुआ परमात्मा विदित होता है। योगेश्वर कहते हैं-मैं अपनी योगमाया से ढँका हुआ हूँ। केवल योग की परिपक्व अवस्थावाले ही मुझे यथार्थ देख सकते हैं। मैं सबके लिये प्रत्यक्ष नहीं हूँ इसलिये यह अज्ञानी मनुष्य मुझ जन्मरहित (जिसे अब जन्म नहीं लेना है), अविनाशी (जिसका नाश नहीं होना है), अव्यक्त स्वरूप (जिसे पुनः व्यक्त नहीं होना है) को नहीं जानता। अर्जुन भी श्रीकृष्ण को अपनी ही तरह मनुष्य मानता था। आगे उन्होंने दृष्टि दी तो अर्जुन गिड़गिड़ाने लगा, प्रार्थना करने लगा। वस्तुतः अव्यक्तस्थित महापुरुष को पहचानने में हमलोग प्रायः अन्धे ही हैं। आगे कहते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज