विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दसप्तम अध्यायअव्यक्तं व्यक्तिपापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः। यद्यपि जब देवताओं के नाम पर देवता नाम की कोई वस्तु है ही नहीं जो फल मिलता है वह भी नाशवान् है, फिर भी सब लोग मेरा भजन नहीं करते; क्योंकि बुद्धिहीन पुरुष (जैसा पिछले श्लोक में आया कि कामनाओं द्वारा जिनका ज्ञान अपहृत हो गया है वे) मेरे सर्वोत्तम, अविनाशी आर परमप्रभाव को भली प्रकार नहीं जानते, इसलिये वे मुझ अव्यक्त पुरुष को व्यक्तिभाव को प्राप्त हुआ मानते हैं, मनुष्य मानते हैं। अर्थात् श्रीकृष्ण भी मनुष्य शरीरधारी योगी थे, योगेश्वर थे। जो स्वयं योगी हों और दूसरों को भी योग प्रदान करने की जिनमें शमता हो, उन्हें योगेश्वर कहते हैं। साधना के सही दौर में पड़कर क्रमशः उत्थान होते-होते महापुरुष भी उसी परमभाव में स्थित हो जाते हैं। शरीरधारी होते हुए भी वे उसी अव्यक्त स्वरूप में स्थित हो जाते हैं; फिर भी कामनाओं से विवश मन्दबुद्धि के लोग उन्हें साधारण व्यक्ति ही मानते हैं। वे सोचते हैं कि हमारी ही तरह तो यह भी पैदा हुए हैं, भगवान् कैसे हो सकते हैं? उन बेचारों का दोष भी क्या है? दृष्टिपात करते हैं और शरीर ही दिखायी पड़ता है। वे महापुरुष के वास्तविक स्वरूप को देख क्यों नहीं पाते? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण से ही सुनें-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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