विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दसप्तम अध्याय‘देवता’ हृदय के अन्तराल में परमदेव परमात्मा के देवत्व को अर्जित करानेवाले सद्गुणों का नाम है। थी तो यह अन्तर की वस्तु; किन्तु कालान्तर में लोगों ने भीतर की वस्तु को बाहर देखना प्रारम्भ कर दिया। मूर्तियाँ गढ़ लीं, कर्मकाण्ड रच डाले और वास्तविकता से दूर खड़े हो गये। श्रीकृष्ण ने इस भक्ति का निराकरण उपर्युक्त चार श्लोकों में किया। गीता में पहली बार ‘अन्य देवताओं’ का नाम लेते हुए उन्होंने कहा कि देवता होते ही नहीं। लोगों की श्रद्धा जहाँ झुकती है, वहाँ मैं ही खड़ा होकर उनकी श्रद्धा को पुष्ट करता हूँ और मैं ही वहाँ फल भी देता हूँ। वह फल भी नश्वर है। फल नष्ट हो जाते हैं, देवता नष्ट हो जाते हैं और देवताओं को पूजनेवाला भी नष्ट हो जाता है। जिनका विवेक नष्ट हो गया, वे मूढ़ बुद्धि ही अन्य देवताओं को पूजते हैं। श्रीकृष्ण तो यहाँ तक कहते हैं कि अन्य देवताओं को पूजने का विधान ही अयुक्तिसंगत है।
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज