यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 35

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय


अर्जुन को सैन्य निरीक्षण में अपना परिवार ही दिखायी पड़ता है, जिसे मारना है। जहाँ तक सम्बन्ध है, उतना ही जगत् है। अनुराग के प्रथम चरण में पारिवारिक मोह बाधक बनता है। साधक जब देखता है कि मधुर सम्बन्धों से इतना विच्छेद हो जायेगा, जैसे वे थे ही नहीं, तो उसे घबराहट होने लगती है। स्वजनासक्ति को मारने में उसे अकल्याण दिखायी देने लगता है। वह प्रचलित रूढ़ियों में अपना बचाव ढूँढ़ने लगता है, जैसा अर्जुन ने किया। उसने कहा- ‘कुलधर्म ही सनातन-धर्म है। इस युद्ध से सनातन-धर्म नष्ट हो जायेगा, कुल की स्त्रियाँ दूषित होंगी, वर्णसंकर पैदा होगा, जो कुल और कुलघातियों को अनन्तकाल तक नरक में ले जाने के लिये ही होता है।’ अर्जुन अपनी समझ से सनातन-धर्म की रक्षा के लिये विकल है। उसने श्रीकृष्ण से अनुरोध किया कि हमलोग समझदार होकर भी यह महान् पाप क्यों करें? अर्थात् श्रीकृष्ण भी पाप करने जा रहे हैं। अन्तगोगत्वा पाप से बचने के लिये ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’-ऐसा कहता हुआ हताश अर्जुन रथ के पिछले भाग में बैठ गया। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संघर्ष से पीछे हट गया।

टीकाकारों ने इस अध्याय को ‘अर्जुन-विषाद योग’ कहा है। अर्जुन अनुराग का प्रतीक है। सनातन-धर्म के लिये विकल होनेवाले अनुरागी का विषाद का कारण बनता है। यही विषाद मनु को हुआ था-‘हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु।’[1] संशय में पड़कर ही मनुष्य विषाद करता है। उसे सन्देह था कि वर्णसंकर पैदा होगा, जो नरक में ले जायेगा। सनातन-धर्म के नष्ट होने का भी उसे विषाद था। अतः ‘संशय-विषाद योग’ का सामान्य नामकरण इस अध्याय के लिये उपयुक्त है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. रामचरितमानस, 1/142

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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