यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 349

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

सप्तम अध्याय

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।4।।

अर्जुन! भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार-ऐसे यह आठ प्रकार भेदोंवाली मेरी प्रकृति है। यह अष्टधा मूल प्रकृति है।

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि में पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत।।5।।

‘इयम्’ अर्थात् यह आठ प्रकारोंवाली तो मेरी अपरा प्रकृति है अर्थात् जड़ प्रकृति है। महाबाहु अर्जुन! इससे दूसरी को जीवरूप ‘परा’ अर्थात् चेतन प्रकृति जान, जिससे सम्पूर्ण जगत् धारण किया हुआ है। वह है जीवात्मा। जीवात्मा भी प्रकृति के सम्बन्ध में रहने के कारण प्रकृति ही है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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