विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दप्रथम अध्यायसंजय उवाच संजय बोला कि रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाला अर्जुन इस प्रकार कहकर बाणसहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गया अर्थात् क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संघर्ष में भाग लेने से पीछे हट गया। निष्कर्ष- गीता क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के युद्ध का निरूपण है। यह ईश्वरीय विभूतियों से सम्पन्न भगवत्-स्वरूप को दिखाने वाला गायन है। यह गायन जिस क्षेत्र में होता है, वह युऋक्षेत्र शरीर है। जिसमें दो प्रवृत्तियाँ हैं-धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र। उन सेनाओं का स्वरूप और उनके बल का आधार बताया, शंखध्वनि से उनके पराक्रम की जानकारी मिली। तदनन्तर जिस सेना से लड़ना है, उसका निरीक्षण हुआ। जिसकी गणना अठारह अक्षौहिणी (लगभग साढ़े छः अरब) कही जाती है, किन्तु वस्तुतः वे अनन्त हैं। प्रकृति के दृष्टिकोण दो हैं- एक इष्टोन्मुखी प्रवृत्ति ‘दैवी सम्पद्’, दूसरी बहिर्मुखी प्रवृत्ति ‘आसुरी सम्पद्’। दोनों प्रकृति ही हैं। एक इष्ट की ओर उन्मुख करती है, परमधर्म परमात्मा की ओर ले जाती है और दूसरी प्रकृति में विश्वास दिलाती है। पहले दैवी सम्पद् को साधकर आसुरी सम्पद् का अन्त किया जाता है, फिर शाश्वत-सनातन परब्रह्म के दिग्दर्शन और उसमें स्थिति के साथ दैवी सम्पद् की आवश्यकता शेष हो जाती है, युद्ध का परिणाम निकल आता है।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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