यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 34

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

संजय उवाच

एवमुक्त्वार्जुनः संखये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।47।।

संजय बोला कि रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाला अर्जुन इस प्रकार कहकर बाणसहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गया अर्थात् क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संघर्ष में भाग लेने से पीछे हट गया। निष्कर्ष-

गीता क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के युद्ध का निरूपण है। यह ईश्वरीय विभूतियों से सम्पन्न भगवत्-स्वरूप को दिखाने वाला गायन है। यह गायन जिस क्षेत्र में होता है, वह युऋक्षेत्र शरीर है। जिसमें दो प्रवृत्तियाँ हैं-धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र। उन सेनाओं का स्वरूप और उनके बल का आधार बताया, शंखध्वनि से उनके पराक्रम की जानकारी मिली। तदनन्तर जिस सेना से लड़ना है, उसका निरीक्षण हुआ। जिसकी गणना अठारह अक्षौहिणी (लगभग साढ़े छः अरब) कही जाती है, किन्तु वस्तुतः वे अनन्त हैं। प्रकृति के दृष्टिकोण दो हैं- एक इष्टोन्मुखी प्रवृत्ति ‘दैवी सम्पद्’, दूसरी बहिर्मुखी प्रवृत्ति ‘आसुरी सम्पद्’। दोनों प्रकृति ही हैं। एक इष्ट की ओर उन्मुख करती है, परमधर्म परमात्मा की ओर ले जाती है और दूसरी प्रकृति में विश्वास दिलाती है। पहले दैवी सम्पद् को साधकर आसुरी सम्पद् का अन्त किया जाता है, फिर शाश्वत-सनातन परब्रह्म के दिग्दर्शन और उसमें स्थिति के साथ दैवी सम्पद् की आवश्यकता शेष हो जाती है, युद्ध का परिणाम निकल आता है।


Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः