यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 335

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

षष्ठम अध्याय

जो योग के संस्कारों से युक्त नहीं है, उन्हें महापुरुष नहीं अपनाते। ‘पूज्य महाराज जी’ यदि साधु बनाते तो हजारों विरक्त उनके शिष्य होते। किन्तु उन्होंने किसी को किराया-भाड़ा देकर, किसी के घर सूचना भेजकर, पत्र भेजकर समझा-बुझाकर सबको उनके घर लौटा दिया। बहुत लोग हठ करने लगे तो उन्हें अपशकुन हो। भीतर से मना हो कि इसमें साधु बनने का एक भी लक्षण नहीं है। इसे रखने में भलाई नहीं है, यह पान नहीं होगा।

निराश होकर दो-एक ने पहाड़ से गिरकर अपनी जान भी दे दी; किन्तु महाराज जी ने उन्हें अपने यहाँ नहीं रखा। बाद में पता चलने पर बोले-“जानत रहेउँ कि बड़ा विकल है लेकिन ई सोचते कि सचहूँ के मरि जाई तो रखी लेते। एक ठो पतितै रहत, अउर का होत।” ममत्व उनमें भी विकट था, फिर भी नहीं रखा। छः-सात को, जिनके लिये आदेश हुआ कि-“आज एक योगभ्रष्ट आ रहा है, जन्म-जन्म से भटका हुआ चला आ रहा है, इस नाम और इस रूप का कोई आने वाला है, उसे रखो, ब्रह्मविद्या का उपदेश करो, उसे आगे बढ़ाओ।” केवल उन्हीं को रखा।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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