विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दषष्ठम अध्यायअधिक भोजन करने से आलस्य, निद्रा और प्रमाद घेरेंगे, तब साधना नहीं होगी। भोजन छोड़ देने से इन्द्रियाँ क्षीण हो जायेंगी, अचल-स्थिर बैठने की क्षमता नहीं रहेगी। ‘पूज्य महाराज जी’ कहते थे कि खुराक से डेढ़-दो रोटी कम खाना चाहिये। विहार अर्थात् साधन के अनुकूल विचरण, कुछ परिश्रम भी करते रहना चाहिये, कोई कार्य ढूँढ़ लेना चाहिये अन्यथा रक्त-संचार शिथिल पड़ जायेगा, रोग घेर लेंगे। आयु सोना और जागना, आहार और अभ्यास से घटता-बढ़ता है। ‘महाराज जी’ कहा करते थे-“योगी को चार घण्टे सोना चाहिये और अनवरत चिन्तन में लगे रहना चाहिये। हठ करके न सोनेवाले शीघ्र पागल हो जाते हैं।” कर्मों में उपयुक्त चेष्टा भी हो अर्थात् नियत कर्म आराधना के अनुरूप निरन्तर प्रयत्नशील हो। बाह्य विषयों का स्मरण न कर सदैव उसी में लगे रहनेवाले का ही योग सिद्ध होता है। साथ ही- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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