यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 309

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

षष्ठम अध्याय

अधिक भोजन करने से आलस्य, निद्रा और प्रमाद घेरेंगे, तब साधना नहीं होगी। भोजन छोड़ देने से इन्द्रियाँ क्षीण हो जायेंगी, अचल-स्थिर बैठने की क्षमता नहीं रहेगी। ‘पूज्य महाराज जी’ कहते थे कि खुराक से डेढ़-दो रोटी कम खाना चाहिये। विहार अर्थात् साधन के अनुकूल विचरण, कुछ परिश्रम भी करते रहना चाहिये, कोई कार्य ढूँढ़ लेना चाहिये अन्यथा रक्त-संचार शिथिल पड़ जायेगा, रोग घेर लेंगे। आयु सोना और जागना, आहार और अभ्यास से घटता-बढ़ता है। ‘महाराज जी’ कहा करते थे-“योगी को चार घण्टे सोना चाहिये और अनवरत चिन्तन में लगे रहना चाहिये। हठ करके न सोनेवाले शीघ्र पागल हो जाते हैं।” कर्मों में उपयुक्त चेष्टा भी हो अर्थात् नियत कर्म आराधना के अनुरूप निरन्तर प्रयत्नशील हो। बाह्य विषयों का स्मरण न कर सदैव उसी में लगे रहनेवाले का ही योग सिद्ध होता है। साथ ही-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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