यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 306

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

षष्ठम अध्याय

ब्रह्मचारी का वास्तविक अर्थ है-‘ब्रह्म आचरति स ब्रह्मचारी’। ब्रह्म का आचरण है नियत कर्म यज्ञ की प्रक्रिया, जिसे करनेवाले ‘यान्ति ब्रह्म सनातनम्’-सनातन ब्रह्म में प्रवेश पा जाते हैं। इसे करते समय ‘स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्मान्’-बाहर के स्पर्श, मन और सभी इन्द्रियों के स्पर्श बाहर ही त्यागकर चित्त को ब्रह्म-चिन्तन में, श्वास-प्रश्वास में, ध्यान में लगाना है। मन ब्रह्म में लगा है तो बाह्य स्मरण कौन करे?

यदि बाह्य स्मरण होता है तो अभी मन लगा कहाँ? विकार शरीर में नहीं, मन की तरंगों में रहते हैं। मन ब्रह्माचरण में लगा है तो जननेन्द्रिय-संयम ही नहीं, सकलेन्द्रिय-संयम तक स्वाभाविक हो जाता है। अतः ब्रह्म के आचरण में स्थित रहकर) भयरहित और अच्छी प्रकार शान्त अन्तःकरणवाला मन को संयत रखते हुए, मुझमें लगे हुए चित्त से युक्त मेरे परायण होकर स्थित हो। ऐसा करने का परिणाम क्या होगा?-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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