विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दषष्ठम अध्यायकोई योगयुक्त कैसे बनता है? वह कैसे यज्ञ करता है? यज्ञस्थली कैसी हो? आसन कैसा हो? उस समय कैसे बैठा जाय? कर्ता के द्वारा पालन किये जानेवाले नियम, आहार-विहार, सोने-जागने का संयत तथा कर्म पर कैसी चेष्ठा हो?-इत्यादि बिन्दुओं पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अगले पाँच श्लोकों में प्रकाश डाला है, जिससे आप भी उस यज्ञ को सम्पनन कर सकें। अध्याय तीन में उन्होंने यज्ञ का नाम लिया और बताया कि यज्ञ की प्रक्रिया ही वह नियत कर्म है। अध्याय चार में उन्होंने यज्ञ का स्वरूप विस्तार से बताया, जिसमें प्राण में अपान का हवन, अपान में प्राण का हवन, प्राण-अपान की गति रोककर मन का निरोा इत्यादि किया जाता है। सब मिलाकर यज्ञ का शुद्ध अर्थ है आराधना तथा उस आराध्य देव तक की दूरी तय करानेवाली प्रक्रिया, जिस पर पाँचवें अध्याय में भी कहा। किन्तु उसके लिये आसन, भूमि, करने की विधि इत्यादि का चित्रण शेष था, उसी पर योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ प्रकाश डालते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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