यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 300

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

षष्ठम अध्याय

कोई योगयुक्त कैसे बनता है? वह कैसे यज्ञ करता है? यज्ञस्थली कैसी हो? आसन कैसा हो? उस समय कैसे बैठा जाय? कर्ता के द्वारा पालन किये जानेवाले नियम, आहार-विहार, सोने-जागने का संयत तथा कर्म पर कैसी चेष्ठा हो?-इत्यादि बिन्दुओं पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अगले पाँच श्लोकों में प्रकाश डाला है, जिससे आप भी उस यज्ञ को सम्पनन कर सकें।

अध्याय तीन में उन्होंने यज्ञ का नाम लिया और बताया कि यज्ञ की प्रक्रिया ही वह नियत कर्म है। अध्याय चार में उन्होंने यज्ञ का स्वरूप विस्तार से बताया, जिसमें प्राण में अपान का हवन, अपान में प्राण का हवन, प्राण-अपान की गति रोककर मन का निरोा इत्यादि किया जाता है। सब मिलाकर यज्ञ का शुद्ध अर्थ है आराधना तथा उस आराध्य देव तक की दूरी तय करानेवाली प्रक्रिया, जिस पर पाँचवें अध्याय में भी कहा। किन्तु उसके लिये आसन, भूमि, करने की विधि इत्यादि का चित्रण शेष था, उसी पर योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ प्रकाश डालते हैं-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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