यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 30

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।40।।

कुल के नाश होने से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं। अर्जुन कुलधर्म, कुलाचार को ही सनातन-धर्म समझ रहा था। धर्म के नाश होने पर सम्पूर्ण कुल को पाप भी बहुत दबा लेता है।

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः।।41।।

हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं। हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है। अर्जुन की मान्यता थी कि कुल की स्त्रियों के दूषित होने से वर्णसंकर होता है, किन्तु श्रीकृष्ण ने इसका खण्डन करते हुए आगे बताया कि मैं अथवा स्वरूप में स्थित महापुरुष यदि आराधना-क्रम में भ्रम उत्पन्न कर दें, तब वर्णसंकर होता है। वर्णसंकर के दोषों पर अर्जुन प्रकाश डालता है-

Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः