यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 295

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

षष्ठम अध्याय

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।6।।

जिस पुरुष द्वारा मन और इन्द्रियोंसहित शरीर जीता हुआ है, उसके लिये उसी का आत्मा मित्र है और जिसके द्वारा मन और इन्द्रियोंसहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिये वह स्वयं शत्रुता में बरतता है।

इन दो श्लोकों में श्रीकृष्ण एक ही बात कहते हैं कि अपने द्वारा अपने आत्मा का उद्धार करें, उसे अधोगति में न पहुँचावें; क्योंकि आत्मा ही मित्र है। सृष्टि में न दूसरा कोई शत्रु है, न मित्र। किस प्रकार? जिसके द्वारा मनसहित इन्द्रियाँ जीती हुई हैं, उसके लिये उसी का आत्मा मित्र बनकर मित्रता में बरतता है, परमकल्याण करनेवाला होता है और जिसके द्वारा मनसहित इन्द्रियाँ नहीं जीती गयी हैं, उसके लिये उसी का आत्मा शत्रु बनकर शत्रुता में बरतता है, अनन्त योनियों और यातनाओं की ओर ले जाता है। प्रायः लोग कहते हैं-‘मैं तो आत्मा हूँ’। गीता में लिखा है, “न इसे शस्त्र काट सकता है, न अग्नि जला सकती है, न वायु सुखा सकता है। यह नित्य है, अमृतस्वरूप है, न बदलनेवाला है, शाश्वत है और हव आत्मा मुझमें है ही।” वे गीता की इन पंक्तियों पर ध्यान नहीं देते कि आत्मा अधोगति में भी जाता है। आत्मा का उद्वार भी होता है, जिसके लिये ‘कार्यम् कर्म’-करने योग्य प्रक्रिया-विशेष करके ही उपलब्धि बतायी गयी है। अब अनुकूल आत्मा के लक्षण देखें-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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