विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दषष्ठम अध्याययदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते। जिस काल में पुरुष न तो इन्द्रियों के भोगों में आसक्त होता है और न कर्मों में आसक्त है (योग की परिपक्वावस्था में पहुँच जाने पर आगे कर्म करके ढूँढ़े किसे? अतः नियत कर्म आराधना की आवश्यकता नहीं रह जाती। इसीलिये वह कर्मों में भी आसक्त नहीं है), उस काल में ‘सर्वसंकल्पसन्यासी’-सर्वसंकल्पों का अभाव है। वही सन्यास है, वही योगारूढ़ता है। रास्ते में सन्यास नाम की कोई वस्तु नहीं है। इस योगारूढ़ता से लाभ क्या है?- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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