विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दषष्ठम अध्यायश्रीभगवानुवाच श्रीकृष्ण महाराज बोले- अर्जुन! कर्मफल के आश्रय से रहित होकर अर्थात् कर्मकरते समय किसी प्रकार की कामना न रखते हुए जो ‘कार्यम् कर्म’-करने योग्य प्रक्रिया-विशेष को करता है वही सन्यासी है, वही योगी है। केवल अग्नि को त्यागनेवाला तथा केवल क्रिया को त्यागनेवाला न सन्यासी है न योगी। क्रियाएँ बहुत-सी हैं। उनमें से ‘कार्यम् कर्म’-करने योग्य क्रिया, ‘नियत कर्म’-निर्धारित की हुई कोई क्रिया-विशेष है। वह है यज्ञ की प्रक्रिया। जिसका शुद्ध अर्थ है आराधना, जो आराध्य देव में प्रवेश दिला देनेवाली विधि-विशेष है। उसको कार्यरूप देना कर्म है। जो उसे करता है वही सन्यासी है, वही योगी होता है। केवल अग्नि को त्यागनेवाला कि ‘हम अग्नि नहीं छूते’ या कर्म त्यागनेवाला कि ‘मेरे लिए कर्म है ही नहीं, मैं तो आत्मज्ञानी हूँ।’-केवल ऐसा कहे और कर्म आरम्भ ही न करे, करने योग्य क्रिया-विशेष न करे तो वह न सन्यासी है न योगी। इस पर और देखें-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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