यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 290

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

षष्ठम अध्याय

श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स सन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।1।।

श्रीकृष्ण महाराज बोले- अर्जुन! कर्मफल के आश्रय से रहित होकर अर्थात् कर्मकरते समय किसी प्रकार की कामना न रखते हुए जो ‘कार्यम् कर्म’-करने योग्य प्रक्रिया-विशेष को करता है वही सन्यासी है, वही योगी है। केवल अग्नि को त्यागनेवाला तथा केवल क्रिया को त्यागनेवाला न सन्यासी है न योगी। क्रियाएँ बहुत-सी हैं। उनमें से ‘कार्यम् कर्म’-करने योग्य क्रिया, ‘नियत कर्म’-निर्धारित की हुई कोई क्रिया-विशेष है। वह है यज्ञ की प्रक्रिया। जिसका शुद्ध अर्थ है आराधना, जो आराध्य देव में प्रवेश दिला देनेवाली विधि-विशेष है। उसको कार्यरूप देना कर्म है। जो उसे करता है वही सन्यासी है, वही योगी होता है। केवल अग्नि को त्यागनेवाला कि ‘हम अग्नि नहीं छूते’ या कर्म त्यागनेवाला कि ‘मेरे लिए कर्म है ही नहीं, मैं तो आत्मज्ञानी हूँ।’-केवल ऐसा कहे और कर्म आरम्भ ही न करे, करने योग्य क्रिया-विशेष न करे तो वह न सन्यासी है न योगी। इस पर और देखें-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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