यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 284

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

पंचम अध्याय


भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।29।।

वह मुक्त पुरुष मुझे यज्ञ और तपों का भोगनेवाला, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर, सम्पूर्ण प्राणियों का स्वार्थरहित हितैषी, ऐसा साक्षात् जानकर शान्ति को प्राप्त होता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि-उस पुरुष के श्वास-प्रश्वास के यज्ञ और तप का भोक्ता मैं हूँ। यज्ञ और तप अन्त में जिसमें विलय होते हैं, वह मैं हूँ। वह मुझे प्राप्त होता है। यज्ञ के अन्त में जिसका नाम शान्ति है, वह मेरा ही स्वरूप है। वह मुक्त पुरुष मुझे जानता है और जानते ही मुझे प्राप्त हो जाता है। इसी का नाम शान्ति है। जैसे मैं ईश्वरों का भी ईश्वर हूँ, वैसे ही वह भी है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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