यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 278

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

पंचम अध्याय


शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।।23।।

इसलिये जो मनुष्य शरीर के नाश होने से पहले ही काम और क्रोध से उत्पनन हुए वेग को सहन करने में (मिटा देने में) सक्षम है, वह नर (न रमन करनेवाला) है। वही इस लोक में योग से युक्त है और वही सुखी है। जिसके पीछे दुःख नहीं है, उस सुख में अर्थात् परमात्मा में स्थितिवाला है। जीते-जी ही इसकी प्राप्ति का विधान है, मरने पर नहीं। सन्त कबीर ने इसी को स्पष्ट किया-‘अवधू! जीवत में कर आसा।’ तो क्या मरने के बार मुक्ति नहीं होती? वे कहते हैं-‘मुए मुक्ति गुरु कहे स्वार्थी, झूठा दे विश्वासा।’ यही योगेश्वर श्रीकृष्ण का कथन है कि शरीर रहते, मरने से पहले ही जो काम-क्रोध के वेग को मिटा देने में सक्षम हो गया, वही पुरुष इस लोक में योगी है, वही सुखी है। काम, क्रोध, बाह्य स्पर्श ही शत्रु हैं। इन्हें आप जीतें। इसी पुरुष के लक्षण पुनः बता रहे हैं-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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