यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दपंचम अध्याय
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्। इसलिये जो मनुष्य शरीर के नाश होने से पहले ही काम और क्रोध से उत्पनन हुए वेग को सहन करने में (मिटा देने में) सक्षम है, वह नर (न रमन करनेवाला) है। वही इस लोक में योग से युक्त है और वही सुखी है। जिसके पीछे दुःख नहीं है, उस सुख में अर्थात् परमात्मा में स्थितिवाला है। जीते-जी ही इसकी प्राप्ति का विधान है, मरने पर नहीं। सन्त कबीर ने इसी को स्पष्ट किया-‘अवधू! जीवत में कर आसा।’ तो क्या मरने के बार मुक्ति नहीं होती? वे कहते हैं-‘मुए मुक्ति गुरु कहे स्वार्थी, झूठा दे विश्वासा।’ यही योगेश्वर श्रीकृष्ण का कथन है कि शरीर रहते, मरने से पहले ही जो काम-क्रोध के वेग को मिटा देने में सक्षम हो गया, वही पुरुष इस लोक में योगी है, वही सुखी है। काम, क्रोध, बाह्य स्पर्श ही शत्रु हैं। इन्हें आप जीतें। इसी पुरुष के लक्षण पुनः बता रहे हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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