यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दपंचम अध्यायये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। केवल त्वचा ही नहीं, सभी इन्द्रियाँ स्पर्श करती हैं। देखना आँख का स्पर्श है, सुनना कान का स्पर्श है। इसी प्रकार इन्द्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न होनेवाले सभी भोग यद्यपि भोगने में प्रिय प्रतीत होते हैं; किन्तु निःसन्देह वे सब दुःखयोनयः’-दुःखद योनियों के ही कारण हैं। वे भोग ही योनियों के कारण हैं। इतना ही नहीं, वे भोग पैदा होने और मिटनेवाले हैं, नाशवान् हैं। इसलिये कौन्तेय! विवेकी पुरुष उनमें नहीं फँसते। इन्द्रियों के इन स्पर्शों में रहता क्या है? काम और क्रोध, राग और द्वेष। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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