|
यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
पंचम अध्याय
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।19।।
उन पुरुषों द्वारा जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया, जिनका मन समत्व में स्थित है। मन के समत्व का संसार जीतने से क्या सम्बन्ध? संसार मिट ही गया, तो वह पुरुष रहा कहाँ? श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म’-वह ब्रह्म निर्दोष और सम है, इधर उसका मन भी निर्दोष और सम स्थितवाला हो गया। ‘तस्मात् ब्रह्मणि ते स्थिताः’-इसलिये वह ब्रह्म में स्थित हो जाता है। इसी का नाम अपुनरावर्ती परमगति है। यह कब मिलती है? जब संसाररूपी शत्रु जीतने में आ जाय। संसार कब जीतने में आता है? जब मन का निरोध हो जाय, समत्व में प्रवेश पा जाय (क्योंकि मन का प्रसार ही जगत् है)। जब वह ब्रह्म में स्थित हो जाता है तब ब्रह्मविद् का लक्षण क्या है? उसकी रहनी स्पष्ट करते हैं-
|
|