यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 267

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

पंचम अध्याय


न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।14।।


वह प्रभु न तो भूतप्राणियों के कर्तापन को, न कर्मों को और न कर्मफलों का संयोग ही बैठाता है, बल्कि स्वभाव में स्थित प्रकृति के दबाद के अनुसार ही सभ्ज्ञी बरतते हैं। जैसी जिसकी प्रकृति-सात्विकी, राजसी अथवा तामसी है, उसी स्तर से वह बरतता है। प्रकृति तो लम्बी-चौड़ी है, लेकिन आपके ऊपर उतना ही प्रभाव डाल पाती है जितना आपका स्वभाव विकृत अथवा विकसित है।

प्रायः लोग कहते हैं कि करने-कराने वाले तो भगवान हैं, हम तो यन्त्रमात्र हैं। इमसे वे भला करावें अथवा बुरा। किन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि न वह प्रभु स्वयं करता है, न कराता है और न वह जुगाड़ ही बैठाता है। लोग अपने स्वभाव में स्थित प्रकृति के अनुरूप बरतते हैं। स्वतः कार्य करते हैं। वे अपने आदत से मजबूर होकर करते हैं, भगवान नहीं करते। तब लोग कहते क्यों हैं कि भगवान करते हैं? इस पर योगेश्वर बताते हैं-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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